दिल्ली की हवा में धुंध इतनी घनी हो जाती है कि आसमान दिखाई नहीं देता—और फिर अचानक, बादल छाते हैं, बूंदें गिरती हैं। ये बारिश कोई साधारण मौसमी घटना नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों ने जानबूझकर पैदा की गई कृत्रिम बारिश है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) पुणे और आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों की टीम ने एक ऐसी तकनीक अपनाई है, जिसके जरिए बादलों को जागृत किया जा रहा है, ताकि वे धूल और कणों को धोकर दिल्ली की हवा साफ कर दें। ये बारिश आकाश से नहीं, बल्कि एक विमान के जरिए शुरू होती है।
ये प्रक्रिया तीन चरणों में चलती है। पहला: बादलों की पहचान। वैज्ञानिक सिर्फ कोई भी बादल नहीं चुनते—वे उन्हें बहुत सावधानी से चुनते हैं। बारिश के लिए बादलों में कम से कम 70% नमी होनी चाहिए, और तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस के आसपास होना चाहिए। अगर बादल बहुत गर्म हैं, तो उनमें बर्फ के कण नहीं बनते। अगर बहुत ठंडे हैं, तो वे पहले से ही बर्फ में बदल चुके होते हैं।
दूसरा चरण: रासायनिक छिड़काव। यहां आता है सिल्वर आयोडाइड (AgI)—ये वो जादू का चूर्ण है जिसे हवाई जहाज बादलों में छिड़कते हैं। ये कण वातावरण में तैरते जलवाष्प के लिए एक न्यूक्लियस बन जाते हैं—एक ऐसा केंद्र जिसके आसपास जल के अणु जमकर बूंदें बनाते हैं। इसके अलावा कैल्शियम क्लोराइड, यूरिया, अमोनियम नाइट्रेट और सूखी बर्फ भी इस्तेमाल की जाती हैं। कुछ बार नमक के कण (सोडियम क्लोराइड) भी डाले जाते हैं, खासकर जब बादल थोड़े गर्म होते हैं।
तीसरा चरण: बारिश का निर्माण। जब बूंदें बड़ी हो जाती हैं—लगभग 1 मिमी से अधिक—तो वे भारी हो जाती हैं। हवा उन्हें उठाए नहीं रख पाती। तब वे गिरने लगती हैं। ये बारिश बादलों को नहीं बनाती, बल्कि उनकी सक्रियता को बढ़ाती है। जैसे एक खाली बर्तन में पानी डालने से नहीं भरता, लेकिन अगर उसमें एक छोटा कण डाल दें, तो पानी उस पर जमकर भर जाता है। वैसे ही यहां भी कण काम करते हैं।
ये तकनीक बिल्कुल नई नहीं है। 13 नवंबर 1946 को अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर विंसेन शेफर्ड ने पहली बार एक विमान से बर्फ के टुकड़े बादलों में फेंके—और बारिश शुरू हो गई। उसके बाद वैज्ञानिकों ने बर्फ के बजाय सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल शुरू किया, क्योंकि ये अधिक प्रभावी और सुरक्षित है।
दिल्ली में ये अभियान अक्टूबर के अंत से शुरू हुआ। आईआईटी कानपुर के विमान हर दिन सुबह 5 बजे उड़ते हैं। वे दिल्ली के ऊपर उड़कर 500-800 मीटर की ऊंचाई पर सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव करते हैं। ये रसायन बादलों के भीतर जाकर बर्फ के कणों के रूप में बदल जाते हैं। इसके बाद बादल भारी हो जाते हैं और बारिश होने लगती है।
ये बारिश बहुत अलग होती है। ये बूंदें छोटी, लेकिन घनी होती हैं। वे धूल के कणों को चिपकाकर नीचे गिराती हैं। एक अध्ययन के मुताबिक, इस तरह की कृत्रिम बारिश से PM2.5 के स्तर में 25-35% तक की कमी आ सकती है।
कुछ लोग डरते हैं कि ये रसायन जमीन या पानी को दूषित कर देंगे। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि इस्तेमाल होने वाली मात्राएं बहुत छोटी हैं—एक वर्ष में कुल 50 किलोग्राम से भी कम। ये सिल्वर आयोडाइड बर्फ के कणों की तरह ही होता है, जिसे बर्फ के गिरने के दौरान वातावरण में फैला दिया जाता है। यह निर्माण प्रक्रिया में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल होता है, जिसका वातावरण पर कोई लंबी अवधि तक प्रभाव नहीं पड़ता।
हालांकि, इसकी लंबी अवधि की असरों के बारे में अभी भी कुछ सवाल हैं। क्या बारिश के बाद ये रसायन मिट्टी में जमा हो जाते हैं? क्या ये नदियों या भूजल में पहुंच सकते हैं? इन सवालों के जवाब अभी तक अधूरे हैं। लेकिन अभी तक के डेटा के मुताबिक, कोई खतरा नहीं दिखा है।
दिल्ली अकेला नहीं है। दुबई ने अपने शहर के लिए 2021 से ही क्लाउड सीडिंग का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया है। वहां के वैज्ञानिकों ने एक रॉकेट लॉन्चिंग सिस्टम बनाया है, जो बादलों के ऊपर जाकर सिल्वर आयोडाइड छिड़कता है। चीन ने 2022 में बारिश के लिए 1,500 से अधिक विमान और रॉकेट तैनात किए।
भारत में भी ये तकनीक पहले भी इस्तेमाल हुई है। 2003 में तमिलनाडु में बारिश के लिए क्लाउड सीडिंग की गई थी। 2015 में महाराष्ट्र में सूखे के दौरान इसका इस्तेमाल किया गया था। अब दिल्ली इसका नया उदाहरण बन रहा है—लेकिन इस बार उद्देश्य बदल गया है। ये सिर्फ बारिश नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्य उपाय है।
अगले साल भारतीय मौसम विज्ञान विभाग और आईआईटी कानपुर एक नया सिस्टम लॉन्च करने जा रहे हैं—एक डिजिटल वॉटर ट्रैकर। ये सिस्टम बादलों की नमी, तापमान और हवा की दिशा को रियल-टाइम में ट्रैक करेगा। इससे वैज्ञानिक यह जान पाएंगे कि कहां और कब छिड़काव करना है।
एक वैज्ञानिक ने कहा, "हम बारिश नहीं बना रहे हैं। हम बादलों को उनकी अपनी शक्ति से काम करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।" और शायद यही असली जादू है।
हां, अध्ययनों के अनुसार, क्लाउड सीडिंग से PM2.5 के स्तर में 25-35% तक की कमी आ सकती है। बारिश की बूंदें धूल, धुएं और अन्य कणों को चिपकाकर नीचे गिरा देती हैं। दिल्ली में इसके बाद हवा की गुणवत्ता में स्पष्ट सुधार देखा गया है।
सिल्वर आयोडाइड, कैल्शियम क्लोराइड, यूरिया और सूखी बर्फ जैसे रसायन इस्तेमाल होते हैं। ये सभी बहुत कम मात्रा में छिड़के जाते हैं—एक वर्ष में कुल 50 किलोग्राम से कम। वैज्ञानिकों के अनुसार, ये रसायन वातावरण में तुरंत फैल जाते हैं और किसी भी तरह से जमीन या पानी को प्रदूषित नहीं करते।
हां, दुबई और चीन जैसे देश इसे सूखे वाले क्षेत्रों में फसलों की सिंचाई के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में भी महाराष्ट्र और तमिलनाडु में पहले इसका उपयोग किया गया है। लेकिन ये एक स्थायी समाधान नहीं, बल्कि एक आपातकालीन उपाय है।
वर्तमान में इस तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ उन बादलों पर किया जाता है जो पहले से ही बारिश के लिए तैयार हैं। ये नए बादल नहीं बनाती, बल्कि मौजूदा को सक्रिय करती है। इसलिए बाढ़ या मौसम बिगड़ने का खतरा बहुत कम है।
हां, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने बैंगलोर, हैदराबाद और लखनऊ के लिए भी पायलट प्रोजेक्ट की योजना बनाई है। ये शहर भी अक्टूबर-नवंबर में वायु प्रदूषण की चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं। अगले दो साल में इनमें से कम से कम दो शहरों में ये तकनीक शुरू हो सकती है।
13 नवंबर 1946 को अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर विंसेन शेफर्ड ने पहली बार एक विमान से बर्फ के टुकड़े बादलों में फेंके, जिससे बारिश शुरू हो गई। उसके बाद सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल शुरू हुआ, जो आज भी सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला एजेंट है।
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