फ्रांस में पिछले यूरोपीय संसद चुनावों ने एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव को जन्म दिया है। दक्षिणपंथी नेशनल रैली (RN) ने 31.4% मत प्राप्त करके एक मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में अपनी स्थिति मजबूत कर ली। वहीं, राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की सेंट्रिस्ट कोएलिशन को केवल 14.6% मत मिले हैं। इस परिदृश्य ने आकस्मिक विधायी चुनावों की राह प्रशस्त की है, जोकि 30 जून और 7 जुलाई को होंगे। यह चुनाव तय करेंगे कि फ्रांस की अगली सरकार की दिशा क्या होगी। नेशनल रैली और मैक्रों के बीच सत्ता-साझेदारी की स्थिति संभावित है, जिसे फ्रांस की राजनीतिक भाषा में 'cohabitation' कहा जाता है।
मरीन ले पेन के नेतृत्व में RN ने पारंपरिक वाम और दक्षिणपंथी पार्टियों को पीछे छोड़ते हुए मुख्य विपक्षी भूमिका निभाई है। उनकी पार्टी की विचारधारा स्पष्ट रूप से एक स्वतंत्र और संप्रभु फ्रांस की बात करती है जोकि अमेरिकी प्रभुत्व और यूरोपीय संघ की प्राधिकारिता को खारिज करता है। ले पेन की नीति में राष्ट्रीय सुरक्षा और स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जाती है, और वे विदेशी मामलों में फ्रांस की भूमिका को सीमित करने का पक्षधर हैं।
यूक्रेन, इस्राइल, NATO, और यूरोपीय संघ पर RN के विचार मैक्रों की नीतियों से काफी भिन्न है। उदाहरण के लिए, यूक्रेन और मोल्डोवा जैसे देशों को यूरोपीय संघ में शामिल करने के मैक्रों के प्रयासों का ले पेन द्वारा विरोध किया जा सकता है। यह स्थिति यूरोपीय रक्षा संगठनों के पुनर्गठन में भी अवरोध खड़ा कर सकती है।
राष्ट्रपति मैक्रों ने अपने कार्यकाल के दौरान यूरोपीय संघ को मजबूत करने और फ्रांस की सक्रिय भूमिका को समर्थन देने की नीति अपनाई है। तथापि, RN के साथ सत्ता-साझेदारी में, मैक्रों को विदेश नीति पर अपने विचारों को अधिनियमित करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
फ्रांस में ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो, राष्ट्रपति को विदेश नीति पर महत्वपूर्ण प्राधिकार मिलता है। लेकिन 'cohabitation' की स्थिति में, जब प्रधानमंत्री विपक्षी पार्टी से होता है, तो यह संतुलन बिगड़ सकता है। पिछली घटनाओं से पता चलता है कि ऐसे मामलों में प्रेसीडेंट विदेश नीति पर नियंत्रण बनाए रख सकते हैं, लेकिन विचारधारात्मक अंतर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों मोर्चों पर संघर्ष को जन्म दे सकता है।
आगामी विधायी चुनाव न केवल फ्रांस की सरकार की दिशा तय करेंगे, बल्कि देश की विदेश नीति पर भी व्यापक प्रभाव डाल सकते हैं। RN की जीत की स्थिति में, फ्रांस NATO और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों में अपनी भूमिका पर पुनर्विचार कर सकता है। इसके अलावा, यूरोपीय संघ की संरचना और निर्णय लेने की प्रक्रिया पर भी गंभीर असर पड़ सकता है।
मरीन ले पेन की दक्षिणपंथी विचारधारा और मैक्रों की सेंट्रिस्ट नीति के बीच यह संघर्ष फ्रांस को एक नयी दिशा में ले जा सकता है। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि जनता किसे अपने भविष्य का नेतृत्व सौंपती है और यह निर्णय कैसे देश की विदेश नीति को आकार देगा।
आखिरकार, यह बदलाव फ्रेंच राजनीती के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय जोड़ सकता है।
Garv Saxena
28 06 24 / 01:23 पूर्वाह्नफ्रांस में दक्षिणपंथी की जीत सिर्फ एक चुनावी झटका नहीं, बल्कि यूरोप के अंदर एक गहरी सांस्कृतिक विद्रोह का संकेत है। जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि लोग क्यों इतने निराश हैं, तब तक हम सिर्फ निशाने पर गोली चलाते रहेंगे। ले पेन का नेतृत्व एक बहाना है, असली मुद्दा तो यह है कि यूरोपीय बुर्जुआजी ने आम आदमी को अपना नाम भूलने के लिए मजबूर कर दिया है। आज एक फ्रेंच मजदूर अपने बच्चों को भविष्य के बारे में बताने के लिए शर्मिंदा है। और हम यहाँ बैठे बैठे इसे 'राजनीति' कहकर फिल्टर कर रहे हैं।
यूरोपीय संघ एक बाजार का अनुबंध है, न कि एक साझा भविष्य। जब तक हम इसे समझ नहीं लेंगे, तब तक हर चुनाव एक नया आग का बिंदु बनता रहेगा।
और हाँ, यूक्रेन के लिए फ्रांस का रुख भी एक अनुकूलन है - जिसमें अमेरिका की बात बड़ी लगती है, लेकिन फ्रांस की आत्मा नहीं।
Rajesh Khanna
29 06 24 / 10:24 पूर्वाह्नये सब बहुत अच्छा लगा, असल में लोगों को अपने देश की पहचान वापस मिल रही है। यूरोप के लिए ये एक नया शुभारंभ हो सकता है। बस थोड़ा शांति से सोचें, और देखें कि क्या होता है।
Sinu Borah
1 07 24 / 09:58 पूर्वाह्नअरे भाई, अगर ले पेन जीत गई तो फ्रांस के लोग अब बाहर जाने के बजाय अपने घर के बाहर के बर्तन भी धोने से इनकार कर देंगे। क्योंकि अब 'स्वतंत्रता' का मतलब है - न तो यूरो, न तो नाटो, न तो यूएसए, बस एक बड़ा बैग और एक बोतल वाइन।
मैक्रों तो अब अपने बैग में बैठकर दुनिया को फ्रेंच कॉफी बेचेंगे। क्या ये नया बिजनेस मॉडल है? नहीं, ये तो बस एक बड़ा ड्रामा है।
Sujit Yadav
2 07 24 / 16:27 अपराह्नअगर आप विश्लेषण के आधार पर एक यूरोपीय संघ के अस्तित्व की वैधता की जाँच करते हैं, तो आपको यह पता चलेगा कि राष्ट्रीय संप्रभुता की अवधारणा एक 19वीं शताब्दी की आर्किवल है - जिसे आधुनिक वैश्विक व्यवस्था ने पार कर दिया है।
ले पेन की विचारधारा एक रोमांटिक भ्रम है, जिसमें आर्थिक अक्षमता को 'राष्ट्रीय गौरव' के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह एक बुद्धिजीवी असफलता है, जो आर्थिक विश्लेषण के बजाय भावनात्मक निर्णयों पर आधारित है।
यूरोपीय संघ की संरचना एक नियंत्रित बाजार के लिए आवश्यक है - न कि एक अनियंत्रित राष्ट्रवाद के लिए। इस तरह के विचार अतीत के अवशेष हैं, जो आज की जटिल वैश्विक आर्थिक संरचना के लिए अप्रासंगिक हैं।
Kairavi Behera
3 07 24 / 15:46 अपराह्नअगर आपको लगता है कि ये सिर्फ फ्रांस की बात है, तो आप गलत हैं। हमारे देश में भी ऐसे ही लोग हैं जो बाहर की बातों से डरते हैं। लेकिन याद रखें - जब भी कोई नया नेता आता है, तो उसके पीछे एक निराश आम आदमी होता है।
हमें बस यह समझना है कि वो आदमी क्यों निराश है। ताकि हम अपने देश में भी ऐसी गलतियाँ न करें।
Aakash Parekh
4 07 24 / 13:54 अपराह्नये सब बहुत लंबा लगा। बस यही कहना था कि फ्रांस में अब दक्षिणपंथी चल रहा है। बाकी सब बहुत ज्यादा लगा।
Sagar Bhagwat
5 07 24 / 21:40 अपराह्नअरे भाई, ले पेन जीत गई तो भी तो वो अपनी बहन की तरह नहीं है जो अपने बाल बेचकर बैंक लोन चुकाती थी। ये तो सिर्फ एक नई चाल है। जब तक यूरोपीय संघ में बैठे लोग अपनी गाड़ियाँ बदलते रहेंगे, तब तक ये सब बस नाटक है।
Jitender Rautela
7 07 24 / 15:26 अपराह्नअरे यार, ये लोग अपने देश को बचाने की बात कर रहे हैं, लेकिन खुद अपने घर की खिड़की साफ नहीं कर पा रहे।
मैक्रों का जो बड़ा बड़ा बयान है, उसमें से कितना सच है? ये सब तो बस टीवी पर बोलने के लिए लिखा गया स्क्रिप्ट है। लोग अब इन बातों से थक चुके हैं।
abhishek sharma
9 07 24 / 10:36 पूर्वाह्नदेखो, ये सब बहुत बड़ी बातें हैं - लेकिन अगर तुम फ्रांस के किसी छोटे शहर में जाओ, तो आपको पता चलेगा कि असली लोग क्या सोचते हैं।
उनके पास न तो यूरोपीय संघ का नियमावली है, न ही नाटो की बातें। उनके पास सिर्फ एक बाइक, एक बच्चा, और एक बार का बिल है।
और जब तुम उनके घर पर बैठो, तो वो कहते हैं - 'हम बस इतना चाहते हैं कि हमारा बच्चा आज भी खाए, कल भी खाए, और फिर बड़ा होकर न तो अमेरिका जाए, न यूरोप, बल्कि अपने शहर में ही रहे।'
ये वो आवाज है जिसे ले पेन ने सुना है। और ये आवाज अब बहुत ज़ोर से गूंज रही है।
हम यहाँ बैठकर यूरोप के भविष्य के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन असली बदलाव तो एक छोटे गाँव के एक दुकानदार के घर से शुरू हो रहा है।
Surender Sharma
9 07 24 / 17:30 अपराह्नye sab bol rha hai lekin kya pata koi bhi yaha tak nahi pahuncha jiske liye ye sab hai. ye sab toh bas ek game hai. le pen? bhai ye toh sirf ek naya brand hai. jaise iphone 16. koi naya model, koi naya ad, aur sabko laga ki ab sab badal jayega. par asal mein toh sab same hi hai.
Divya Tiwari
11 07 24 / 03:08 पूर्वाह्नफ्रांस की जनता ने अपने आप को बचाने का फैसला किया है। हम यहाँ बैठे बैठे उनकी बातें आलोचना कर रहे हैं - लेकिन हमारे देश में क्या हो रहा है? हमारे लोग भी अपनी भाषा, अपनी पहचान, अपने संस्कार के लिए लड़ रहे हैं।
ये सिर्फ फ्रांस की बात नहीं है। ये एक वैश्विक आंदोलन है।
हम जो लोग यहाँ बैठकर यूरोप के बारे में बात कर रहे हैं, हमारे देश में भी ऐसे ही लोग हैं जो अपने घर की जमीन के लिए लड़ रहे हैं।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि एक देश की आत्मा उसके लोगों में होती है - न कि उसके बैंक खातों में।
shubham rai
12 07 24 / 17:38 अपराह्नye sab kya likha hai? thoda short karo yaar.
Nadia Maya
14 07 24 / 04:34 पूर्वाह्नमैं तो सोचती हूँ कि यूरोपीय संघ एक आर्थिक नियंत्रण का नेटवर्क है, जिसे एक बुद्धिजीवी वर्ग ने बनाया है - जो अपने अधिकारों को बरकरार रखना चाहता है।
ले पेन एक राष्ट्रीय आंदोलन की नेता हैं, न कि एक राजनेता। उनकी विचारधारा एक अनुभव है - जो उनके देश के लोगों के अंदर जीवित है।
हम जो लोग यहाँ बैठकर इसे 'अलग' कहते हैं, हम अपने आप को उन लोगों से अलग कर रहे हैं - जो अपने घर के लिए लड़ रहे हैं।
Nitin Agrawal
15 07 24 / 05:25 पूर्वाह्नle pen? kya yeh ek naya brand hai? sab kuchh same hai, bas naam badal gaya.