राहुल गांधी, लोकसभा में विपक्ष के नेता, ने हाल ही में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यापार जगत की वर्तमान स्थिति पर अपने विचार साझा किए। उनके अनुसार, भारतीय व्यवसाय वर्तमान में 'मोनोपोली बनाम निष्पक्ष व्यापार' के मध्य एक संघर्ष का सामना कर रहे हैं। यह संघर्ष कोई नया नहीं है, बल्कि कई वर्षों से चल रहा है, जहां बड़े संस्थान और व्यवसाय छोटी कंपनियों और उद्यमियों को उनके हिस्से की स्वतंत्रता से वंचित करते हैं।
उन्होंने अपने लेख में संकेत किया कि मूल ईस्ट इंडिया कंपनी भले ही 150 साल पहले समाप्त हो गई थी, लेकिन आज के समय में नए मोनोपोलिस्ट एक भय का माहौल बना रहे हैं। भारतीय समाज में बढ़ती असमानता और अन्याय का कारण कुछ बड़े धनवान समूह हैं जिन्होंने अपार संपत्ति अर्जित की है। ये वर्ग सरकारी संस्थानों और नियामकों पर अपना नियंत्रण रखते हैं, जिससे आम जनता क्या देखती है, क्या पढ़ती है, क्या सोचती है और क्या बोलती है, उसे प्रभावित कर रहे हैं।
राहुल गांधी का मानना है कि आज भारतीय बाजार में सफलता का निर्धारण अब मार्केट फोर्सेज़ द्वारा नहीं बल्कि पॉवर रिलेशंस द्वारा हो रहा है। ऐसे बहुत से व्यापारिक नेता अब प्रतिस्पर्धा करने से डरते हैं क्योंकि उन्हें आयकर, सीबीआई, अथवा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापों का भय रहता है। यह डर उन्हें अपने व्यवसाय को इन्हीं बड़े समूहों को बेचने के लिए मजबूर करता है। इसलिए, उनका मानना है कि यह वर्तमान व्यवस्था वास्तव में स्वतंत्रता के खिलाफ एक व्यापारिक मोर्चा है।
राहुल गांधी ने यह भी कहा कि सरकार को ऐसे समूहों का समर्थन नहीं करना चाहिए जो समाज में असमानता पैदा करते हैं। सरकारी एजेंसियों को व्यवसायों को धमकाने के लिए नहीं इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने कहा कि ये मोनोपोलिस्ट स्वयं दुष्ट लोग नहीं हैं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक सीमाओं का परिणाम हैं। इसलिए, एक प्रगतिशील भारतीय व्यापार के लिए एक नया सौदा आवश्यक है। बैंक को 'निष्पक्ष खेल' वाले व्यवसायों का समर्थन करना चाहिए, न की अच्छी तरह से जुड़े उधारकर्ताओं की ओर झुकाव रखना चाहिए जिनके पास गैर-प्रदर्शनात्मक संपत्ति (एनपीए) होते हैं।
राहुल गांधी ने अपने लेख में कई उद्यमियों की सफलताओं का भी जिक्र किया जिन्होंने इस विपरित व्यवस्था में भी सफलता हासिल की। उन्होंने पेयूष बंसल का उदाहरण दिया, जिन्होंने लेंसकार्ट की सह-स्थापना की और इसे एक बड़ी सफलता में तब्दील कर दिया। फ़क़ीर चंद कोहली का भी उल्लेख किया जिन्होंने 1970 के दशक में टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) का निर्माण किया और इसे वैश्विक आईटी सेवाओं के परिदृश्य को बदलने में सक्षम हुए।
राहुल गांधी ने उन उद्यमियों की सराहना की जो प्रणाली के विरोध में दृढता से खड़े रहते हैं और अपनी सोच और दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ते हैं। वे मानते हैं कि यह ऐसे साहसी उद्यमी हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने की ताकत रखते हैं।
राहुल गांधी ने अपने लेख को इस संदेश के साथ समाप्त किया कि सामाजिक दबाव और प्रतिरोध के माध्यम से राजनीतिक व्यवहार को आकार देने के लिए गहरा प्रभाव हो सकता है। उन्होंने पाठकों को प्रोत्साहित किया कि वे सोशल प्रेशर के माध्यम से बदलाव का हिस्सा बनें और सबके लिए धन और रोजगार उत्पन्न करें। उन्होंने स्पष्ट किया कि हमें किसी ख़ास उद्धारकर्ता की आवश्यकता नहीं है, बल्कि प्रत्येक नागरिक को अपनी भूमिका निभाने की जरूरत है। यह परिवर्तन, स्वतंत्रता की ओर बढ़ने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है।
राहुल गांधी का यह लेख एक समय पर आ रहा है जब भारत में राजनीतिक परिदृश्य लगातार बदल रहा है। उनका यह सुझाव कि भारतीय नागरिकों को रोक-थाम और थोपे गए कानूनी दबावों के खिलाफ साहसपूर्वक खड़ा होना चाहिए, एक महत्वपूर्ण संदेश देता है।
Rajesh Khanna
7 11 24 / 07:04 पूर्वाह्नअच्छा लेख है, लेकिन असली सवाल ये है कि छोटे उद्यमी कब तक इस खेल में बचेंगे? मैंने अपने दोस्त को देखा है जिसकी छोटी सी कंपनी एक बड़े प्लेटफॉर्म के एल्गोरिदम ने बर्बाद कर दी। बस एक टिप्पणी नहीं, बल्कि जिंदगी बदल गई।
Garv Saxena
7 11 24 / 10:12 पूर्वाह्नराहुल गांधी का ये लेख बस एक राजनीतिक नाटक है। मोनोपोली का जिक्र कर रहे हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब एक नया बिजनेस बनाते हैं, तो उसे अपनी निचली लाइन को बचाने के लिए भी बड़े बैंकों से लेन-देन करना पड़ता है? और वो बैंक भी उन्हीं बड़े कंपनियों को लोन देते हैं क्योंकि उनका रिस्क प्रोफाइल कम होता है। ये सब बाजार का नियम है, न कि कोई साजिश। लेकिन अच्छा लगा कि आपने एक बार फिर डर के बारे में बात की।
मैं तो सोचता हूं कि जब तक हम अपने बच्चों को नौकरी की चाहत नहीं छोड़ेंगे, तब तक कोई बदलाव नहीं आएगा। हर कोई एक बड़ी कंपनी में जॉब चाहता है, और फिर वो बड़ी कंपनी को बचाने के लिए राजनीति करती है। ये एक सर्कल है।
मैंने एक बार एक छोटे फूड ब्रांड के साथ काम किया था। उन्होंने अपने प्रोडक्ट को अपने शहर के लोगों के बीच बेचने की कोशिश की। लेकिन जब उन्होंने अपने पैकेट पर लिखा ‘हमारा घरेलू तेल’ - तो एक बड़ा फूड कॉर्पोरेट ने उन्हें लीगल नोटिस भेज दिया कि ‘घरेलू’ शब्द का इस्तेमाल उनके ब्रांड के लिए एक्सक्लूसिव है। और वो छोटा बिजनेस बंद हो गया।
ये सब बातें तो बहुत अच्छी हैं, लेकिन अगर आपके पास एक बड़े बैंक का लिंक है, तो आपका बिजनेस बचता है। अगर नहीं है, तो आप अपने घर के बाहर एक छोटी सी दुकान खोलकर भी नहीं बच सकते।
मैं जानता हूं कि आप कहेंगे कि ये सब राजनीति है, लेकिन ये तो राजनीति का नतीजा है। जब तक हम अपने आप को बड़े बिजनेस के लिए बनाए रखेंगे, तब तक कोई निष्पक्षता नहीं आएगी।
और हां, पेयूष बंसल की कहानी तो बहुत अच्छी है, लेकिन उसके बाद भी कितने लोग बचे? एक लाख में से एक।
Sinu Borah
7 11 24 / 12:17 अपराह्नअरे भाई, राहुल गांधी ने फिर से मोनोपोली का नाम लिया? ये तो उनका टैगलाइन बन गया है। क्या आपने कभी सोचा कि जब आप अपना फोन खरीदते हैं, तो आप खुद एक मोनोपोली को चुन लेते हैं? एप्पल या सैमसंग? तो फिर आपको क्यों लगता है कि भारत में बड़े बिजनेस गलत हैं?
मैं तो बस एक बात कहना चाहता हूं - अगर आपके पास एक अच्छा आइडिया है, तो आप बड़े बिजनेस के खिलाफ नहीं, बल्कि उनके साथ खेल सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक छोटा ब्रांड अमेज़न पर बेच रहा है। वो अमेज़न के नियमों को समझता है। वो उनके एल्गोरिदम को ट्रिक करता है। और अब वो लाखों कमा रहा है।
मोनोपोली का नाम लेकर राजनीति करना आसान है। लेकिन असली चुनौती ये है कि आप उस नियम के अंदर जीत जाएं।
Sujit Yadav
8 11 24 / 22:25 अपराह्नराहुल गांधी के इस लेख में जो बातें कही गई हैं, वे सिर्फ एक आंदोलन के लिए एक नारा हैं। एक वास्तविक आर्थिक विश्लेषण नहीं। उन्होंने एक नियामक ढांचे के बारे में कुछ भी नहीं कहा - न कोई डेटा, न कोई रिसर्च, न कोई एक्सपर्ट रेफरेंस। यह सिर्फ एक भावनात्मक आह्वान है।
उन्होंने पेयूष बंसल का उदाहरण दिया - लेकिन क्या आप जानते हैं कि लेंसकार्ट को फंडिंग के लिए बड़े इन्वेस्टर्स ने ही समर्थन दिया? और उन इन्वेस्टर्स के पास कौन था? वो बड़े बिजनेस के साथ जुड़े हुए थे।
तो फिर आप कहते हैं कि बड़े बिजनेस खतरनाक हैं? लेकिन वो बड़े बिजनेस ही हैं जिन्होंने छोटे उद्यमियों को बाजार तक पहुंचाया। यह एक जटिल रिश्ता है - न तो सिर्फ शोषण, न सिर्फ सहायता।
और जिस तरह से आप आईटी इंडस्ट्री के बारे में बात कर रहे हैं - टीसीएस की सफलता को एक उदाहरण बनाया जा रहा है - लेकिन टीसीएस के पास आर्थिक और राजनीतिक नेटवर्क था। वो बड़े बिजनेस के बिना नहीं बन सकते थे।
इसलिए, यह सिर्फ एक राजनीतिक रूपक है। वास्तविक समाधान नहीं।
Kairavi Behera
9 11 24 / 21:07 अपराह्नहर एक छोटा उद्यमी जो आज जिंदा है, वो इस तरह के लेखों के बिना भी लड़ रहा है। लेकिन आपका संदेश अच्छा है।
अगर आप एक छोटा बिजनेस चला रहे हैं, तो बस एक चीज़ याद रखें - आपका ग्राहक आपका सबसे बड़ा सहारा है। उन्हें बताएं कि आप क्या बना रहे हैं। उन्हें बताएं कि आपकी कहानी क्या है।
एक दोस्त के पास एक छोटा सा हैंडमेड जूता बनाने का कारखाना है। उसने इंस्टाग्राम पर अपने काम की वीडियो डाली। एक हफ्ते में उसे 500 ऑर्डर मिल गए।
आपको बड़े बिजनेस के खिलाफ लड़ने की जरूरत नहीं। आपको अपने ग्राहकों के साथ जुड़ने की जरूरत है।
आपका लेख उन लोगों के लिए है जो अभी तक अपनी आवाज़ नहीं उठा पाए। आप उनके लिए एक आवाज़ बन गए। धन्यवाद।
Aakash Parekh
11 11 24 / 18:23 अपराह्नबस एक लेख लिख दिया और बाकी सब बिजनेस बंद हो गए? ये तो बस बातों का खेल है।
Sagar Bhagwat
12 11 24 / 10:04 पूर्वाह्नअरे भाई, राहुल गांधी ने जो कहा, वो बिल्कुल सही है। मैंने अपने भाई के बिजनेस को देखा है - एक छोटा सा लोकल रेस्टोरेंट। उन्हें अपने लिए एक नया डिलीवरी ऐप बनाने का मौका मिला। लेकिन जब उन्होंने उसे लॉन्च करने की कोशिश की, तो ज़ोमैटो ने उन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया। बस इतना सा।
और अब वो लोग अपनी दुकान बंद कर रहे हैं।
ये नहीं है कि बड़े बिजनेस बुरे हैं। ये है कि जब उनके पास सब कुछ होता है - पैसा, नेटवर्क, लॉयल्टी प्रोग्राम - तो छोटे लोगों के लिए जीतना नामुमकिन हो जाता है।
हमें एक नया नियम चाहिए। एक ऐसा नियम जो छोटे बिजनेस को बचाए।
Jitender Rautela
12 11 24 / 16:02 अपराह्नअरे यार, ये सब बकवास है। जब तक आप अपने घर में एक चाय की दुकान नहीं चलाते, तब तक आपको ये सब बातें समझ में नहीं आएंगी।
मैंने अपने दोस्त को देखा है - उसने अपने घर के बाहर एक चाय की दुकान खोली। उसकी चाय बहुत अच्छी थी। लेकिन जब उसने अपनी दुकान का नाम 'चाय वाला राम' रखा, तो एक बड़ा फ्रैंचाइज़ी ने उसे लीगल नोटिस भेजा कि उनका ब्रांड नाम 'चाय वाला' है।
और अब वो दुकान बंद है।
तो फिर बताओ, ये कौन सा निष्पक्ष व्यापार है?
मैं तो कहता हूं - ये सब बस एक राजनीतिक नाटक है। लेकिन अगर आप चाहते हैं कि बदलाव हो, तो आपको अपनी चाय की दुकान खोलनी होगी। बाकी सब बकवास है।
abhishek sharma
13 11 24 / 01:52 पूर्वाह्नमैं तो सोचता हूं कि राहुल गांधी का ये लेख बिल्कुल उसी तरह है जैसे एक आदमी जो बारिश में भीग रहा है और बोल रहा है - ‘अरे, बारिश बहुत बुरी है!’
क्या आपने कभी देखा है कि एक छोटा उद्यमी अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए अपने घर के बाहर एक छोटा सा स्टैंड बनाता है? और फिर एक बड़ी कंपनी उसे बाजार में ले आती है? वो छोटा उद्यमी अपना ब्रांड खो देता है। लेकिन वो बड़ी कंपनी उसके उत्पाद को बेचकर लाखों कमाती है।
मैंने एक बार एक छोटे ब्रांड के साथ काम किया था - उनका एक बेस्टसेलर उत्पाद था। एक बड़ी कंपनी ने उसे खरीद लिया। अब वो उत्पाद बड़ी कंपनी के नाम से बेच रही है। छोटा ब्रांड? गायब।
मैं नहीं कह रहा कि बड़े बिजनेस बुरे हैं। मैं कह रहा हूं कि जब तक हम अपने छोटे उद्यमियों को उनकी पहचान नहीं बचाएंगे, तब तक ये बातें बस एक बातचीत होंगी।
और हां - जब आप अपनी चाय की दुकान का नाम बदल देते हैं, तो आप बदलाव का हिस्सा बनते हैं।
Surender Sharma
14 11 24 / 21:24 अपराह्नye sab bs propaganda hai... monopoli? bhai kya tumne kabhi amazon pe kuch kharida hai? 90% cheezein wahi se aati hai... aur phir tum bol rahe ho ki monopoli hai? bhai koi bhi cheez jispe log zyada khareed rahe hain, wohi dominant hoti hai... yeh market ka law hai, koi conspiracy nahi hai.
aur agar tum soch rahe ho ki small biz ko support karna hai, toh phir apne ghar ke paas ka local shop kharido... bas itna hi karo... koi law banane ki zaroorat nahi hai.
Divya Tiwari
16 11 24 / 10:57 पूर्वाह्नराहुल गांधी की बातें बस देश के खिलाफ हैं। भारत के बड़े बिजनेस दुनिया को दिखा रहे हैं कि हम कैसे आगे बढ़ रहे हैं। अगर आपको लगता है कि बड़े कंपनियां छोटों को दबा रही हैं, तो आप अपने आप को बदलें।
भारत को ताकतवर बनाने के लिए हमें बड़े बिजनेस की जरूरत है। आपके जैसे लोग ही देश को कमजोर बना रहे हैं।
एक देशभक्त के रूप में मैं कहती हूं - बड़े बिजनेस का समर्थन करें। वो ही भारत का भविष्य हैं।
shubham rai
16 11 24 / 20:38 अपराह्नसही बात है... लेकिन अब तक क्या हुआ?
:(
Nadia Maya
18 11 24 / 15:21 अपराह्नराहुल गांधी के लेख में एक गहरी सांस्कृतिक अनुभूति है - एक ऐसी आवाज़ जो भारतीय अर्थव्यवस्था के अंदर छिपी हुई है। लेकिन उन्होंने एक बात छोड़ दी: जब आप एक नए उत्पाद को बाजार में लाते हैं, तो आपको उसकी विशेषता के बारे में बात करनी चाहिए - न कि उसके खिलाफ एक बड़ी कंपनी का नाम लेना।
मैंने एक छोटे फैशन ब्रांड के साथ काम किया था। उन्होंने अपने लिए एक नया डिज़ाइन बनाया - जो भारतीय बुनाई की परंपरा को फ्यूचरिस्टिक तरीके से जोड़ता था। उन्होंने इसे बेचने के लिए एक अपनी वेबसाइट बनाई। लेकिन जब उन्होंने एक बड़ी फैशन कंपनी को अपना डिज़ाइन दिखाया, तो उन्होंने उसे खरीद लिया।
अब वो डिज़ाइन उस बड़ी कंपनी के नाम से बेच रही है।
लेकिन छोटा ब्रांड? उसने अपना डिज़ाइन बनाने का साहस दिखाया। और उसने एक नया बाजार बनाया।
मैं तो सोचती हूं - ये बात बड़े बिजनेस के खिलाफ नहीं, बल्कि छोटे बिजनेस के लिए एक आह्वान है।